suniye
पृथ्वी दिवस केअवसर पर गीत
कल क्या हो ?
कोई मुझसे पूछे ,
कल क्या हो ?
मैं कहता ,यह संसार रहे ।
हम रहें ,न रहें
फिर भी तो
घूमेगी दुनियाँ इसी तरह।
चमकेगा आसमान सारा
नदियाँ उमड़ेगी उसी तरह।
ये सात समुंदर, बचे रहें
को व्दीप न डूबें
सागर में,
सब कुछ बिगड़े
पर थोड़ा सा
जल बचा रहे
इस घाघर मे।
सब कुछ तो
खत्म नहीं होता
जो बचा आपसी प्यार रहे
कोई मुझसे पूछे
कल क्या हो
मे कहता हूँ ,संसार रहे ।
कमलेश कुमार दीवान
नोटःःप्राकृतिक पर्यावरण के केन्द्र मे मानव है।जलवायु परिवर्तनशील तत्वो का
समुच्य है।परिवर्तन होते रहें हैं और होंगें,परन्तु हमे आशाओं का सृजन
करना चाहिये।संसार की आबादियो को यह गीत सादर समर्पित है।
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गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
मंगलवार, 21 अप्रैल 2009
गगन मै
गगन मै
गगन मै
उड़ते बिहग अनेक।
गगन मे उड़ते ,बिहग अनेक ।
कोई अकेला
कोई सखा सँग
कोई..कोई विशेष ।
गगन में,उड़ते बिहग अनेक ।
कमलेश कुमार दीवान
गगन मै
उड़ते बिहग अनेक।
गगन मे उड़ते ,बिहग अनेक ।
कोई अकेला
कोई सखा सँग
कोई..कोई विशेष ।
गगन में,उड़ते बिहग अनेक ।
कमलेश कुमार दीवान
सोमवार, 20 अप्रैल 2009
ओ पंछी उड़ जा रे
suniye
ओ पंछी उड़ जा रे
ओ पंछी उड़ जा रे
साँझ हो रही है
डेरों के पास आयेगा न बहेलियाँ ।
छुई मुई से पँख तेरे
सारा आकाश
दूर ऊँचे पर्वत और बादलों के पास
आज घनें पैड़ नहीं
न छप्पर...छानी
पानी के खप्पर मे
न होती दानी
घोंसलें के तिनकों की,तान खो गयी है
डेरों के पास आयेगा न बहेलियाँ ।
बरगद की खोहो मे
प्राण नहीं हैं
बूढे रखवारे मे
जान नहीं हैं
रात के बसेरों पर
बिजली के सूरज हैं
दाना..पानी मे ईमान नही है
चारे चुन चुनकर
घोंसले बनाये जो
आज वही ,कमरों की शान हो गई हैं
ओ पँछी उड़ जा रे
साँझ हो गई है
डेरों के पास आयेगा न बहेलियाँ ।
कमलेश कुमार दीवान
ओ पंछी उड़ जा रे
ओ पंछी उड़ जा रे
साँझ हो रही है
डेरों के पास आयेगा न बहेलियाँ ।
छुई मुई से पँख तेरे
सारा आकाश
दूर ऊँचे पर्वत और बादलों के पास
आज घनें पैड़ नहीं
न छप्पर...छानी
पानी के खप्पर मे
न होती दानी
घोंसलें के तिनकों की,तान खो गयी है
डेरों के पास आयेगा न बहेलियाँ ।
बरगद की खोहो मे
प्राण नहीं हैं
बूढे रखवारे मे
जान नहीं हैं
रात के बसेरों पर
बिजली के सूरज हैं
दाना..पानी मे ईमान नही है
चारे चुन चुनकर
घोंसले बनाये जो
आज वही ,कमरों की शान हो गई हैं
ओ पँछी उड़ जा रे
साँझ हो गई है
डेरों के पास आयेगा न बहेलियाँ ।
कमलेश कुमार दीवान
मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
अकेले मन का गीत
suniye
अकेले मन का गीत
ओ अकेले मन ,
तुझे चलना पड़ेगा
कारबाँ मे ,कारबाँ मे,कारबाँ मे ।
बहुत झगड़े हैं ,झमेले हैं
ठहरकर आबाद रहने मे
सब तरफ से उगलियाँ उठती
भीड़ मे अपबाद रहने से
बात को बर्दाश्त करने का
समय अब चुक गया है
श्वाँस की उष्माएँ सहने का भी
मौसम रुक गया है
पर रुका न सिलसिला ,दुनियावी मेलो का
ओ अकेले तन
तुझे चलना पड़ेगा
कारबाँ मे, कारबाँ ,मे कारबाँ मे ।
मान्यतायें अनगिनत
अपनी जमातों मे
बाँटकर देखा
शहर और गाँव ,जातों मे
सोचते षड़यंत्र करते
दें किसी को मात
मेल इतना सा और
अनबन ढेर नातों मे
हाथ मे झँडें हैं खँजर हैं
पर न बदला रूप भी,मिट्टी के ढेलों का
ओ अकेले कण तुझे
मिलना पड़ेगा
कारबाँ मे,कारबाँ मे,कारबाँ मे।
ओ अकेले मन
तुझे चलना पड़ेगा
कारबाँ मे, कारबाँ मे, कारबाँ मे ।
कमलेश कुमार दीवान
अकेले मन का गीत
ओ अकेले मन ,
तुझे चलना पड़ेगा
कारबाँ मे ,कारबाँ मे,कारबाँ मे ।
बहुत झगड़े हैं ,झमेले हैं
ठहरकर आबाद रहने मे
सब तरफ से उगलियाँ उठती
भीड़ मे अपबाद रहने से
बात को बर्दाश्त करने का
समय अब चुक गया है
श्वाँस की उष्माएँ सहने का भी
मौसम रुक गया है
पर रुका न सिलसिला ,दुनियावी मेलो का
ओ अकेले तन
तुझे चलना पड़ेगा
कारबाँ मे, कारबाँ ,मे कारबाँ मे ।
मान्यतायें अनगिनत
अपनी जमातों मे
बाँटकर देखा
शहर और गाँव ,जातों मे
सोचते षड़यंत्र करते
दें किसी को मात
मेल इतना सा और
अनबन ढेर नातों मे
हाथ मे झँडें हैं खँजर हैं
पर न बदला रूप भी,मिट्टी के ढेलों का
ओ अकेले कण तुझे
मिलना पड़ेगा
कारबाँ मे,कारबाँ मे,कारबाँ मे।
ओ अकेले मन
तुझे चलना पड़ेगा
कारबाँ मे, कारबाँ मे, कारबाँ मे ।
कमलेश कुमार दीवान
मंगलवार, 7 अप्रैल 2009
आजादी की याद मे एक गीत
आजादी की याद मे एक गीत
उन सपनो को ,कौन गिनाएँ
जो बारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
होना दूर गरीबी को था
पर विलासता बढती क्यो
परिवर्तन की चाह मे निकली
राह सियासी लगती क्यों?
पसरा रहता घोर अँधेरा
इन बिजली के तारों से
जान न पाए पीढाओं को
बाते चाँद सितारों से।
उन अपनों को कौन मनाएँ
जो यारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये ।
हमलो के बढते खतरों में
लोग अकेले रहते हैं
बीहड में डाकू, राहों पर
कई लुटेरें रहतें हैं
गजब हुए हैं दिल्ली बाले
गबई गाँव सब छूट गये।
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
कमलेश कुमार दीवान
११ जनवरी १९९८
उन सपनो को ,कौन गिनाएँ
जो बारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
होना दूर गरीबी को था
पर विलासता बढती क्यो
परिवर्तन की चाह मे निकली
राह सियासी लगती क्यों?
पसरा रहता घोर अँधेरा
इन बिजली के तारों से
जान न पाए पीढाओं को
बाते चाँद सितारों से।
उन अपनों को कौन मनाएँ
जो यारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये ।
हमलो के बढते खतरों में
लोग अकेले रहते हैं
बीहड में डाकू, राहों पर
कई लुटेरें रहतें हैं
गजब हुए हैं दिल्ली बाले
गबई गाँव सब छूट गये।
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
कमलेश कुमार दीवान
११ जनवरी १९९८
अब अंधकार भी जाने कितने
suniye
अब अंधकार भी जाने कितने
अब अंधकार भी
जाने कितने स्हाय घने होंगे,
पथ धूल धूसरित और दिशाएँ
हुई नयन से ओझल ।
हम ढूँढ रहे हैं क्यों
अनंत के छोर
दुख के प्रहार अब
द्रवित नहीं करते हैँ ।
नित नई वेदनाओं
के प्रवाह मे लोग
सूखे अँतस से
क्रमिक नहीं झरते हैं ।
दिल के सुराख भी
जाने कितनें और बड़े होंगें ।
पथ धूल धूसरित और दिशाएँ
हुई नयन से ओझल
अब अँधकार भी जाने कितने
स्हाय घने होंगें ।
टुकड़ों टुकड़ों मे बटे हुये
कैसे एक देश बनाएँगें
सूखीं बगियाँ ,मरते माली
कैसे एक फूल उगायेंगें
धन लुटा,अस्मिता नग्न हुई
नोंचे जाते पथ पर सुहाग
बसते संसार भी
जानै कितनें उजड़ गये होगें
अब अँधकार भी जाने कितने
स्हाय घने होंगें
पथ धूल धूसरित और दिशाएँ
हुई नयन से ओझल ।
कमलेश कुमार दीवान
अब अंधकार भी जाने कितने
अब अंधकार भी
जाने कितने स्हाय घने होंगे,
पथ धूल धूसरित और दिशाएँ
हुई नयन से ओझल ।
हम ढूँढ रहे हैं क्यों
अनंत के छोर
दुख के प्रहार अब
द्रवित नहीं करते हैँ ।
नित नई वेदनाओं
के प्रवाह मे लोग
सूखे अँतस से
क्रमिक नहीं झरते हैं ।
दिल के सुराख भी
जाने कितनें और बड़े होंगें ।
पथ धूल धूसरित और दिशाएँ
हुई नयन से ओझल
अब अँधकार भी जाने कितने
स्हाय घने होंगें ।
टुकड़ों टुकड़ों मे बटे हुये
कैसे एक देश बनाएँगें
सूखीं बगियाँ ,मरते माली
कैसे एक फूल उगायेंगें
धन लुटा,अस्मिता नग्न हुई
नोंचे जाते पथ पर सुहाग
बसते संसार भी
जानै कितनें उजड़ गये होगें
अब अँधकार भी जाने कितने
स्हाय घने होंगें
पथ धूल धूसरित और दिशाएँ
हुई नयन से ओझल ।
कमलेश कुमार दीवान
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