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मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

।।करें बँदना मैया तोरी ।।

।।करें बँदना मैया तोरी ।।

करें बँदना
मैया तोरी ।

रहे सब सुखी
हो समृध्दशाली,
बहू बेटियाँ
हों सौभाग्य वाली।
यही अर्चना
मैया मोरी ।
करे बँदना मैया तौरी।

करे कामना जो
माँ शेरों वाली
तेरे दर से कोई न
जा पाये खाली

यही प्रार्थना है
मैया मोरी ।

करे बँदना ,मैया तोरी ।

कमलेश कुमार दीवान
24/09/2009

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

हमे कुछ करना चाहिये

हमे कुछ करना चाहिये
कमलेश कुमार दीवान
जब भी हम उदास होते हैं
अपने हालात पर लिखते हैं,कविताएँ
गाते गुनगुनाते है,कोई मनपसंद गीत
या फिर चलते चले जाते है उस ओर
जहाँ रास्तो मे मंजिले नही होती
नहीं होते है घर,शोर मचाते बच्चे
लोरियाँ सुनाती धाँय माँ,
कहानियाँ कहती दादी नानी
किस्से हाँकते बाबा और बचपन के दिन
सब पास और अधिक पास आ जाते हैं
तब लगता है ,हमे कुछ करना चाहिये ।
हम जो चाहते हैं वह यही है कि.....
नदियाँ तालाब पोखर या समुंदर के किनारे जाएँ
फेके उनमे पतली चिप्पियाँ और छपाक उछलती कूद गिनें
कुये के पाट पर जाये ,उनमे ढूँके,बोम मारे
फैक दे बड़ी सी ईट और सुने धमाक।
अमियाँ तोड़े या डाली
या पेड़ों पर चढकर झूले और कूद पड़े
बागों से चुने फूल या निहारे खूबसूरती
माली की प्रशंसा मे गीत लिखे या खाये गाली
सच तो यही है कि हम
करना चाहते बही सब कुछ जो करते रहे है पर
ओहदों की याद,शहर की आदतें और
उत्तर आधुनिक समय
हाँक रहा होता है हमें
तब लगता है
हमे कुछ और करना चाहिये
उनमे से कुछ होती है..
बड़े होते बच्चों पर झिड़कियाँ
नौकरी पर जाती औरतो पर फिकरे
खाँसते..खखारते पिता पर ताने और
बर्तन माँजती माँ..बीबी पर टिप्पणियाँ
भाई बहन के लिये उलाहनें
बचे हुये लोगो के लिये लानत ..मनालत
हम यही सब तो करते हैं
जो नहीं करना चाहिये ,फिर भी.
क्या हमे कुछ करना चाहिये ?

कमलेश कुमार दीवान
१७ अप्रेल २००५

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

दीप पर्व शुभ हो

।।ॐ श्री गणेशाय नमः।।


दीप पर्व शुभ हो

आलोकित हो गये

तिमिर पथ

लघु विस्तृत,आकाश और वृत्

प्रमुदित प्राण अर्थ अर्पित है

और

दीपोत्सव के पर्व।


कमलेश कुमार दीवान
अध्यापक एवम् लेखक
होशंगाबाद म.प्र.

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

दो कदम साथ हो ले

दो कदम साथ हो ले

ये तन्हाईयाँ भी
डराने लगी हैं
मेरे हमसफर ,दो कदम साथ हो ले ।

बहुत पास थे ,रास्ते
मुड़ के देखा
कदम दो मिलाते
तो मँजिल ही होती

कई खौफ थे जिनसे
डरते रहे हम
नकाबों,लिबासों में
मरते रहे हम
बड़े सपने आँखों मे
बसते गये थे
बही आज फिर भय
सजाने लगी हैं
ये तन्हाईयाँ भी
डराने लगी हैं
मेरे हमसफर दो कदम साथ हो लें ।
कमलेश कुमार दीवान

रात चाँद बच्चे और सूरज

रात चाँद बच्चे और सूरज

(कमलेश कुमार दीवान)

चाँद से राते नहीं नापी जा सकती
रातो के माप नींद और सपने भी नहीं हैं
उसनींदे मरते लोगो की रातें लम्बी दोपहर तक खिचतीं है
इसलिये पैमाइश सूरज का प्रकाश भी नहीं हो सकता हैं
दूर टिमटिमाते तारे और ज्यादा तेज चमककर जताते तो है कि
रातें अब समाप्त होने वाली है ,पर
भोर के आकाशदीप भी अब
राते समाप्त नहीं कर सकते हैं
रातें अब
मुर्गे की बाँग और चिड़ियों के कलरव से भी नहीं सिमट रही हैं
बूढ़ों के खाँसते खकारते रहने,नही सोने,जागते रहने
बच्चों के रोते रहने और बाकी सबके खर्राटे लेने से भी
नहीं खुटती है रातें
आधुनिक गुफाओं जैसे घर में
छोटे छोटे सूरज टाँगकर आदमी सोता ही कहाँ है
इन सबके बाबजूद सूरज ही तय करता है दिन
कोई तो है जो बादलों की तरह अनियमित नहीं है
बसों ,रेलगाड़ियों,हवाई जहाजों की तरह लेट लतीफ भी नहीं हैं
बिजली की तरह आता जाता और मशीनो की तरह घनघनाता नहीं हैं
उसका अपना समय है और उस काल के साथ वह है
यदि ऐसा नहीं हो तब चिल्लाते रहें मुर्गे,बूढ़े खाँसते खँकारते सिधार जायें
बच्चे कितने ही रिरियायें,रोते बिलखते रहें
चिड़ियों के झुँड के झुँड कलरव करें
औरतें दहशत से सिहर जायें
आदमी मुँह ढाँपकर मर जाएँ
कुछ नहीं होगा तब राते ही रातें होगीं
हजारो हजार घोड़ों के रथ पर सवार सूरज
तुम यदि दिशाएँ याद रखना भूल जाओं तो
मेरी बच्ची का दिशा सूचक यंत्र ले जाना
प्रश्नो का व्यापार करते विश्व मे
उत्तर का बोध सबसे जरुरी है
बच्चों की,हवाओं और पानी बाले बादलों की दिशाएँ
उसी से तय हो रहीं हैं
बच्चो के सर के ऊपर उत्तर और पेरो के नीचे दक्षिण है
बच्चो के दाहिने बाएँ बदलती रहती है दिशाएँ
यहाँ कुछ तो रातें तय करती है
कुछ चाँद तारे और सूरज
बाँकी सब बच्चों के हिस्से मे हैं
आधी रात तक जागते और देर तक सोते लोगों के पास
शायद कुछ नहीं है
रातो ने तय कर दिया है सबकी सुबह दोपहर तक होगी ।

कमलेश कुमार दीवान
नोट.. यह कविता समकालीन भारतीय साहित्य नई दिल्ली के
अंक 84 जुलाई अगस्त 1999 मे प्रकाशित हुई है।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

मै तन्हा तन्हा तेरे

मैं तन्हा..तन्हा,तेरे रास्तों से गुजरा हूँ
मुकाम मेरे ,रहबरों ने ही तलाश किये ।
लम्हें खुशी के भी आए,दुःखों के ठहरे शहर
तमाम मेरे मुखबिरो ने ही खलाश किये ।

नए नए से असर फितरतों से पलते गये
शमाएँ रोशनी में आठों पहर जलते गये
निशाँ जमीं पे बने,बिगड़े डगमगाए कदम
सदाएँ मौसमी सहते गये सिहरते गये।

मैं जहाँ जहाँ भी तेरे रास्ते से गुजरा हूँ
मुकाम मेरे सिरफिरों ने ही तलाश किये।

गलत सही के हिसाबो..किताब कौन रखें
चला चलूँ तो,मालों.आसबाब कौन रखे।
एक अदद दिल पे ही काबूँ नहीं रखा जाता
उतार फेंकूँ तो फिर ये लिबास कौन रखें।

मेरी तासीर मँजिलों को ढूँढना तो नहीं
एक मकसद कि सारा जहाँन मौन रहे
मै कहाँ कहाँ से तेरे वास्ते से गुजरा हूँ
मुकाम मेरे दिलजलों ने ही तलाश किये।

मै तन्हाँ तन्हाँ तेरे रास्तों से गुजरा हूँ
मुकाम मेरे रहबरों ने ही तलाश किये।
कमलेश कुमार दीवान
८ जून १९९४