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बुधवार, 8 दिसंबर 2010

हमे कुछ करना चाहिये

हमे कुछ करना चाहिये

जब भी हम उदास होते हैं
अपने हालात पर लिखते हैं,कविताएँ
गाते गुनगुनाते है,कोई मनपसंद गीत
या फिर चलते चले जाते है उस ओर
जहाँ रास्तो मे मंजिले नही होती
नहीं होते है घर,शोर मचाते बच्चे
लोरियाँ सुनाती धाँय माँ,
कहानियाँ कहती दादी नानी
किस्से हाँकते बाबा और बचपन के दिन
सब पास और अधिक पास आ जाते हैं
तब लगता है ,हमे कुछ करना चाहिये ।
हम जो चाहते हैं वह यही है कि.....
नदियाँ तालाब पोखर या समुंदर के किनारे जाएँ
फेके उनमे पतली चिप्पियाँ और छपाक उछलती कूद गिनें
कुये के पाट पर जाये ,उनमे ढूँके,बोम मारे
फैक दे बड़ी सी ईट और सुने धमाक।
अमियाँ तोड़े या डाली
या पेड़ों पर चढकर झूले और कूद पड़े
बागों से चुने फूल या निहारे खूबसूरती
माली की प्रशंसा मे गीत लिखे या खाये गाली
सच तो यही है कि हम
करना चाहते बही सब कुछ जो करते रहे है पर
ओहदों की याद,शहर की आदतें और
उत्तर आधुनिक समय
हाँक रहा होता है हमें
तब लगता है
हमे कुछ और करना चाहिये
उनमे से कुछ होती है..
बड़े होते बच्चों पर झिड़कियाँ
नौकरी पर जाती औरतो पर फिकरे
खाँसते..खखारते पिता पर ताने और
बर्तन माँजती माँ..बीबी पर टिप्पणियाँ
भाई बहन के लिये उलाहनें
बचे हुये लोगो के लिये लानत ..मनालत
हम यही सब तो करते हैं
जो नहीं करना चाहिये ,फिर भी.
क्या हमे कुछ करना चाहिये ?

 कमलेश कुमार दीवान
१७ अप्रेल २००५